नई दिल्ली. वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लेकर देशभर में कई याचिकाएं दायर की गई हैं, जिनमें इस कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि नए प्रावधान धार्मिक स्वतंत्रता, संपत्ति के अधिकार और समानता के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ?
सुप्रीम कोर्ट में सोमवार (13 मई) को इस मामले की सुनवाई हुई, जिसमें केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत को बताया कि सरकार ने पहले से ही तीन प्रमुख मुद्दों पर अपना विस्तृत जवाब दाखिल कर दिया है, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने चिन्हित किया था।
अगली सुनवाई:
20 मई 2025 को होगी। केंद्र सरकार का रुख: बनी रहेगी यथास्थिति
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को यह भरोसा दिया कि—संशोधित वक्फ कानून के जिन प्रावधानों पर विवाद है, जैसे किगैर-मुस्लिमों को वक्फ बोर्ड या केंद्रीय वक्फ परिषद में शामिल करना, वक्फ संपत्तियों को “गैर-अधिसूचित” घोषित करने का अधिकार देना
इन पर फिलहाल अमल नहीं किया जाएगा।यानी, Status Quo (यथास्थिति) बनी रहेगी, जब तक सुप्रीम कोर्ट कोई अंतिम फैसला नहीं देता।
प्रमुख मुद्दे जो चुनौती के घेरे में हैं:
- वक्फ संपत्तियों की अधिसूचना बिना जांच के
- संपत्ति के मालिकाना हक पर मुस्लिम वक्फ बोर्ड का दावा
- गैर-मुस्लिमों को वक्फ बोर्ड में शामिल करने की वैधानिकता
- संशोधन से संभावित “धार्मिक पक्षपात” का आरोप
याचिकाकर्ताओं की आपत्ति:
याचिकाकर्ताओं ने दलील दी है कि—
वक्फ अधिनियम का ढांचा धर्मनिरपेक्ष संविधान के खिलाफ है।
यह गैर-मुस्लिम नागरिकों की संपत्तियों पर सीधा अधिकार जमाने का कानून बन गया है।
इससे भूमि विवाद, धार्मिक तनाव और सांविधानिक संतुलन में हस्तक्षेप हो सकता है।
क्या कहते हैं संवैधानिक विशेषज्ञ?
कई कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यदि वक्फ अधिनियम के संशोधन को सुप्रीम कोर्ट से वैधता मिलती है, तो यह भारत में धार्मिक संस्थानों की संपत्तियों पर सरकारी नियंत्रण को नए तरीके से परिभाषित करेगा।
वहीं, कुछ जानकार इसे ज्यूडिशियल स्क्रूटिनी (न्यायिक जांच) की कसौटी पर टिका हुआ मानते हैं।
वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 फिलहाल विवादों और चुनौतियों के बीच फंसा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रही इस संवैधानिक समीक्षा का असर न केवल वक्फ संस्थाओं, बल्कि भारत के संपत्ति कानून और धार्मिक स्वतंत्रता की परिभाषा पर भी पड़ेगा। 20 मई को होने वाली सुनवाई से पहले केंद्र का यह रुख अदालत को आश्वस्त करने की कोशिश है कि कोई जल्दबाज़ी नहीं की जाएगी।