मंडी से कुल्लू की ओर जाती सड़क, ब्यास नदी के किनारे-किनारे चलती है. ऊँचे-ऊंचे पहाड़ों के बीच स्थित घाटी में सड़क एक से दूसरे पहाड़ तक बढ़ती रहती है और दूसरी ओर शोर करती हुई, ब्यास नदी उछलती-कूदती साथ-साथ बहती रहती है. इसी सड़क पर आगे बढ़ते हुए, बीच-बीच में नदी पार करने के लिए रस्सी के पुल वगैरह दिख जाते हैं.
सड़क के किनारे कई जगह सेब, बाबूगोशा, गोभी आदि फलों और सब्ज़ियों के ढेर दिखाई दे रहे थे. यह समझ में नहीं आया कि इस सड़क के किनारे जहाँ दो से तीसरे वाहन के चलने की जगह नहीं है, वहाँ थोड़ी सी जगह में एक कोठरी के आगे ये ढेर क्यों लगे हैं और कई आदमी क्यूं बैठे हुए हैं?
थोड़ा आगे बढ़ने पर हणोगी गाँव में हणोगी माता के मंदिर के आगे एक ऐसे ही ढेर के आगे हम रुके. यहाँ किनारे पर गोभी बोरी में बंद की जा रही थी और सेब प्लास्टिक के क्रेट्स में जमा थे. कुछ बोरों में आलू और कुछ अन्य सामान भरे रखे थे.
इस ढेर से सटे हुए दो-चार स्टील के तार ऊपर पहाड़ पर जा रहे थे और उनमें से एक पर लोहे की टोकरीनुमा ट्रॉली लटक रही थी. हमारे लिए यह एक नयी व्यवस्था थी इसलिये इसे देखना-समझना ज़रूरी हो गया था.
‘झूला’ ढोता है सामान
यहाँ मौजूद क़रीब 35-40 की उम्र के व्यक्ति से उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम लोभूराम बताया. उससे पहले इस व्यवस्था का काम और नाम पूछा तो उसने इस विशेष सी लगने वाली व्यवस्था को बड़े आसान तरीक़े से समझाया. यह पहाड़ी पर बसे कई गावों की रोज़ की ज़रूरत के सामान को उपर तक पहुँचाने और वहाँ के उत्पादों को नीचे बाज़ार तक पहुँचाने का सीधा-साधा जुगाड़ है. ऊपर नलवगी पंचायत के गाँव बहुत ऊपर हैं और सड़क से वहाँ पहुँचने के लिए 5-6 घंटे लगते हैं. ब्यास को दूर जाकर पार करना पड़ता है. लम्बी और संकरी सड़क लेनी पड़ी है और अधिकतर गाँवों तक पैदल चढना पढ़ता है. इसलिए इस ‘स्पैन लोडिंग’ जुगाड़ से समय और पैसा दोनों बचता है.
पुली सिस्टम से चालित इस ‘रोपवे जुगाड़’ जैसी व्यवस्था को ‘स्पैन लोडिंग’ या ‘झूला’ कहते हैं. इसमें केवल सामान को ही नदी पार करा कर उपर पहाड़ पर बसे गाँवों तक ढोया जाता है. आदमी इससे पार नहीं कराये जाते हैं. लोभूराम ने बताया कि इस व्यवस्था में सामान की ढुलाई का भाड़ा 250 रु प्रति क्विंंटल है. फलों के मौसम में 60-70 क्विंटल ढोया जाता है अन्यथा 20-30 क्विंटल. बारिश होने पर काम रोक दिया जाता है. बारिश में ट्रॉली के फिसलने और उससे तार के टूटने का ख़तरा होता है. इसमें जान भी जा सकती है, मशीन और सामान के नुक़सान का ख़तरा तो है ही.
इस पूरे जुगाड़ में सबसे अहम भूमिका, ब्रेक की है. यदि ग़लती से ब्रेक ना लगा, जिसे हाथ से लगाना होता है तो समझिए ब्रेक लगाने वाले की जान गयी. यह देसी सा जुगाड़ है और इसकी क़ीमत 7-8 साल पहले क़रीब 17-18 लाख रुपए आयी थी.
बेसुध सरकारी अमला
लोभूराम से बात करते हुए ही नज़र उसके इस जुगाड़ के लगभग बराबर में ही ऐसे ही अन्य जुगाड़ पर गयी. पूछने पर पता चला कि यह सरकारी व्यवस्था थी जो पिछले 12-15 सालों से बंद पड़ी है. एक बार उसका ब्रेक ख़राब हुआ तो फिर ठीक नहीं हुआ. कुछ साल सबने इंतज़ार किया और उसके बाद लोभूराम ने अपने व्यावसायिक कौशल और व्यापारिक प्रतिभा से इसी के बराबर में यह निजी व्यवस्था शुरू की, जिसे अभी हम जुगाड़ कह रहे हैं. वैसे सरकार भी जुगाड़ ही कर रही थी लेकिन वह जुगाड़ सरकारी था, इसलिए उसे व्यवस्था कहा गया. इसके लिए किसी अनुमति या लाइसेन्स आदि की ज़रूरत के सवाल पर लोभूराम ने बताया कि इसके लिए ग्राम पंचायत में प्रस्ताव पारित करके डीसी से एक अनुमति पत्र लेना होता है, जो उसने ले रखा है लेकिन अभी वह घर पर रखा है. उसका कोई रेजिस्ट्रेशन नहीं है, ना ही कोई बिल या टैक्स होता है. यह स्वयंभू व्यवस्था है, ज़रूरत और लागत पर आधारित है.
हमारे यहाँ इस तरह की व्यवस्था हर इलाक़े में मिल जाएगी. कहीं समान को इधर-उधर ले जाने की, कहीं आदमी और वाहनों को. उत्तर प्रदेश, बंगाल और बिहार में अक्सर नदी में नाव डूबने में दहाई और सैकड़ा में लोगों के मरने की ख़बरें आती हैं. फिर दब जाती हैं और अगले हादसे के बाद फिर प्रकट होती हैं. इस बीच में कोई पत्रकार, अफ़सर, नेता इस पर ध्यान नहीं देता और अगले हादसे का इंतज़ार करता है।
कहां हैं सुधीजन
सवाल है कि एक ऐसी सड़क पर जिस पर अक्सर भूस्खलन होता है, यह व्यवस्था सभी नेताओं, अफ़सरों, आदि को दिखाई तो देती ही होगी. क्या कभी किसी ने इस पर सोचा है? क्या कभी विधानसभा में इस पर सवाल उठा है? क्या लोभूराम और ऐसे अनेक लोगों के सुरक्षित जीवन-यापन का सवाल कहीं दर्ज हुआ है? हमारे यहां से निकलने के तुरंत बाद आसपास एक बड़ी चट्टान सड़क पर गिरी है। अब कुल्लू-मंडी मार्ग रात भर बंद रहेगा.
यह जुगाड़ ख़ुद बहुत ख़तरनाक है. किसी वजह से तार टूटने पर पहले भी अप्रिय घटनाएँ हुई हैं. नए आविष्कारों और मशीनों के ज़माने में क्या किसी ने इसे बदलने या सुधारने की सोचा है? क्या किसी ने इस जुगाड़ को किसी तरह संस्थागत बनाने के बारे में विचार किया है? शायद नहीं. नहीं तो, यह जुगाड़ जिसमें 17-18 लाख का ख़र्चा आता है, जो लोभूराम जैसा व्यक्ति अपनी जेब से करता है और उसका कहीं कोई बिल या लाइसेन्स नहीं दिखता? क्या सरकार इस व्यवस्था में थोड़ा तकनीकी सुधार करके इसे रोज़गार का एक सुलभ साधन नहीं बना सकती? क्या सड़क के डिज़ाइन में इनके लिए किनारे पर जगह नहीं बनायी जा सकती? मगर इन सबसे पहले सवाल है कि क्या ये सवाल किसी पत्रकार, जनप्रतिनिधि, किसी जनसेवक, किसी नीति निर्माता या किसी नीतिनिर्धारक के ज़ेहन में आते भी हैं?