पत्रकारों की हत्याओं का सिलसिला जारी है. बस नाम बदल जाते हैं. लेकिन जिस क्रूरता के साथ हत्यारे घटना को अंजाम देते हैं, वो एक जैसा ही है. आखिर क्यों महज़ चंद गिने चुने लोगों के अलावा इसके खिलाफ़ कोई खुलकर आवाज़ नहीं उठता.
वहीं, अगर एक भी पत्रकार पर किसी भी तरह का कोई आरोप लग जाए, चाहे वह झूठा ही क्यों न हो. इसके बाद तो लोग पूरी पत्रकार बिरादरी को ही गद्दार, मक्कार, दलाल, बिका हुआ, घूसखोर और न जाने कौन कौन से अल्फाज़ों से नवाज़ने में नहीं चूकते. लेकिन जब एक पत्रकार सिर्फ़ सच, हक़ और समाज की बेहतरी के लिए बोलने की वजह से बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया जाए तो उनके साथियों के अलावा शायद ही कोई खुलकर इसका विरोध करता हुआ नज़र आए.
एक बेबाक पत्रकार गौरी लंकेश, जिसको उसके ही घर में घुसकर गोलियों से भून दिया गया. जिसने हमेशा से ही उन बातों को बेबाकी से लोगों के सामने रखा जो बातें आमतौर पर लोग बोलने से डरते हैं. इससे बुरा और क्या हो सकता है कि ऐसी बेबाक महिला की हत्या के बाद उसके ज़्यादातर पड़ोसी अपने घरों में ताला लगाकर दूसरी जगह चले गए. ताकि वो इस मामले में न पड़ सकें.
यानी हमें कोई फ़र्क नही पड़ता कि हमारे लिए कोई कितनी भी आवाज़ उठाए. हमें सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने से मतलब है. बाकी कौन मरा ,कौन जिंदा है वो खुद जाने.
इससे भी मुंह नही मोड़ा जा सकता कि हत्या के बाद घरों में लटकते ताले यह दर्शाते हैं कि मारने वाले कतई मामूली हत्यारे नहीं हैं. उनके पास इतनी ज्यादा पॉवर है कि कोई भी इस मामले में नही पड़ना चाहता.
हम सबको यह हमेशा से लगता है कि जितनी प्रेस की आज़ादी हमारे मुल्क में है उतनी शायद ही किसी मुल्क में हो. लेकिन हमें यह जानकर हैरानी होगी कि हम नेपाल और भूटान से भी नीचे हैं. ग्लोबल प्रेस फ्रीडम की तालिका में हम 180 देशों की सूची में 136वें नंबर पर हैं. ये आंकड़ा 2016 के मुकाबले और बिगड़ा ही है. वर्ष 2016 में भारत 134वें नंबर पर था. लेकिन हमें इससे क्या? हम तो ख़ुश हैं कि हम पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश से तो आगे ही हैं. फिर क्या फ़र्क पड़ता है कि कौन पत्रकार मारा जाता है.