नई दिल्ली. 8 अप्रैल 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि राज्यपाल किसी भी विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। यह फैसला तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर एक याचिका के बाद आया, जिसमें राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा विधेयकों को मंजूरी न देने की शिकायत की गई थी। इस फैसले के बाद सियासी हलचल तेज हुई और अब इस पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगते हुए 14 संवैधानिक प्रश्न पूछे हैं।
राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए 14 संवैधानिक सवाल
- अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास क्या-क्या संवैधानिक विकल्प उपलब्ध हैं?
- क्या राज्यपाल इन विकल्पों का उपयोग मंत्रिपरिषद की सलाह से बाध्य होकर करते हैं?
- राज्यपाल का विवेक (discretion) न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है या नहीं?
- अनुच्छेद 361 राज्यपाल की न्यायिक जांच पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाता है या नहीं?
- क्या सुप्रीम कोर्ट समयसीमा तय कर सकता है, भले ही संविधान में कोई डेडलाइन न दी गई हो?
- अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति का विवेक न्यायिक समीक्षा के अधीन है या नहीं?
- क्या न्यायालय राष्ट्रपति के निर्णय के लिए भी समयसीमा और प्रक्रिया निर्धारित कर सकते हैं?
- क्या राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय लेनी चाहिए जब राज्यपाल कोई विधेयक आरक्षित करते हैं?
- क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के निर्णयों को न्यायोचित ठहराया जा सकता है, भले ही वे कानून लागू होने से पहले लिए गए हों?
- क्या न्यायपालिका अपने अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल की शक्तियों को बदल या रद्द कर सकती है?
- क्या किसी राज्य का कानून राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू हो सकता है?
- क्या सुप्रीम कोर्ट को पहले यह तय करना चाहिए कि मामला संवैधानिक व्याख्या का है, और फिर उसे पांच जजों की पीठ को सौंपना चाहिए?
- क्या अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को ऐसा आदेश देने की शक्ति देता है जो संविधान या कानून का खंडन करता हो?
- क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 131 के अलावा किसी और आधार पर केंद्र और राज्य के बीच विवाद का निपटारा कर सकता है.
यह विवाद क्यों है महत्वपूर्ण?
राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए प्रश्न सिर्फ कानूनी या तकनीकी नहीं हैं, बल्कि ये सीधे भारत के संविधान में शक्तियों के विभाजन (Separation of Powers) से जुड़े हैं। सवाल यह है कि:
- क्या सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका की भूमिका में हस्तक्षेप कर सकता है?
- क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियां सीमित की जा सकती हैं?
- क्या न्यायपालिका संविधान में उल्लिखित समयसीमा न होने पर खुद समयसीमा तय कर सकती है?
राजनीतिक और संवैधानिक महत्व - सत्ताधारी दल के कुछ नेताओं ने इस मुद्दे को “संवैधानिक संतुलन के उल्लंघन” के रूप में देखा है।
- वहीं विपक्षी दल इसे राज्यों के अधिकारों की सुरक्षा के रूप में देख रहे हैं।
- विशेषज्ञों की राय भी बंटी हुई है — कुछ इसे न्यायपालिका का “न्यायसंगत हस्तक्षेप” कहते हैं, जबकि कुछ इसे “ज्यूडिशियल ओवररीच” करार दे रहे हैं।
राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए ये सवाल एक बड़े संवैधानिक विमर्श की ओर इशारा करते हैं। यह सिर्फ न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच अधिकारों की बहस नहीं, बल्कि यह तय करने का प्रयास है कि भारत का संविधान किस तरह व्याख्यायित और लागू किया जाए। सुप्रीम कोर्ट की राय आने वाले समय में न सिर्फ राज्यपालों के व्यवहार, बल्कि देश के संघीय ढांचे को भी गहराई से प्रभावित कर सकती है।