सोलन. विश्व की पहली बोन मोनेस्ट्री के संस्थापक लुंतोग तनपई रिंपोछे 14 सितंबर को देह त्याग चुके है. लेकिन उनका पार्थिव शरीर अनुयायियों के अंतिम दर्शनों के लिए रखा गया है. उनके अनुयायी 2 अक्तूबर तक उनके दर्शन कर सकते है. जहाँ पार्थिव शरीर रखा गया है उसके ठीक पास हजारों दिए प्रज्वलित किए गये है.
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अनुयायियों का मानना है कि गुरु ने सभी को अज्ञानता के अँधेरे से बाहर निकाला था. इसलिए उनके पास इन दियों को प्रज्वलित किया गया है. ताकि उनके पास अन्धेरा फटक भी नहीं पाये. यही नहीं जिन अनुयायियों को गुरु की समाधि का पता चल रहा है वह अमेरिका, यूरोप, रशिया, मैक्सिको, इंग्लैड, नेपाल, तिब्बत और विश्व के कोने-कोने से मोनेस्ट्री का रुख कर रहा है. पार्थिक शरीर के समक्ष दिन-रात पूजा-अर्चना जारी है.
तिब्बत से शरणार्थी के रूप में आये थे
संस्थापक लुंतोग तनपई निमा रिंपोछे वर्ष 1959 में तिब्बत से शरणार्थी के रूप में यहां आये थे. बाद में इन्होंने उत्तर भारत के सोलन व सिरमौर सीमा पर स्थित धोलांजी में मेनरी गोन्पा की स्थापना की. यहां पर तिब्बत स्थित बोन धर्म के अध्ययन-अध्यापन की परंपरा को आज तक यथावत बनाये रखा है. अपने अथक प्रयास से उन्होंने न केवल भारत में बोन धर्म को स्थापित किया बल्कि भारत से संपूर्ण विश्व को इससे अवगत कराया.
दया और करुणा के धनी थे
इस मौके पर बोन मोनेस्ट्री से बतौर भारतीय पहली बार पीएचडी की डिग्री हासिल करने वाले विद्यार्थी टी जी नेगी ने बताया कि 14 सितम्बर को उनके गुरु अपना पार्थिव शरीर छोड़ दिया है. वह दया और करुणा के धनी थे जो लगातार शिक्षा का दीप जला कर अज्ञानता को दूर करने की मुहिम चलाए हुए थे. इस मोनेस्ट्री में हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर चुके है. आज उन्हें गर्व है कि उनकी बोन मोनेस्ट्री विश्व में पहले स्थान पर है.
लुंतोग तनपई की शिक्षा
लुंतोग तनपई रिंपोछे का जन्म तिब्बत में चीनी बार्डर के पास क्योत्सांग गांव में वर्ष 1929 में हुआ. 25 वर्ष की आयु में उन्होंने गेशे डिग्री (पी.एच.डी.) कर ली. वर्ष 1959 में ल्हासा से नेपाल होते हुए डोल्पो में आए, वहां करीब 1000 वर्ष से अधिक पुरानी सामलिंग मोनेस्ट्री में रहे और यहां उनकी मुलाकात प्रो. स्नेलग्रो से हुई. बाद में वह उनके साथ लंदन चले गए. 1961 में दिल्ली आए और 1962 में न्यूयार्क गए और 1964 में मसूरी में तिब्तियन शरणार्थी बच्चों के लिए मिडल स्कूल खोला.
60 के दशक के मध्य में लोपेन तेंजिंन नमदाक द्वारा कैथेलिक रिलीफ सर्विस के माध्यम से दोलांजी में जमीन खरीदी व शरणार्थियों के लिए स्थान बनाया. वर्ष 1966 में ओस्लो विवि में थे. तो यहां से उन्हें 33वां मठाधिकारी चुना गया. इसके बाद दोलांजी आए और मेनरी मोनेस्ट्री की स्थापना की. दोलांजी में 15-20 लामा प्रतिवर्ष गेशे डिग्री के साथ पास आउट होते हैं. यहां अनाथ बच्चों के लिए आश्रम व हॉस्टल भी है व देश-विदेश से लोग यहां पढ़नेआते हैं.