नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को अरावली पहाड़ियों की 100 मीटर की नई परिभाषा से जुड़े अपने ही 20 नवंबर के फैसले को फिलहाल प्रभावहीन करते हुए ताज़ा विशेषज्ञ समीक्षा का आदेश दिया। यह कदम कई मायनों में असाधारण है। मुख्य न्यायाधीश (CJI) सूर्य कांत की अध्यक्षता वाली विशेष पीठ ने यह हस्तक्षेप स्वतः संज्ञान (suo motu) लेते हुए किया, यानी किसी पक्षकार की औपचारिक पुनर्विचार याचिका के बिना ही अदालत ने अपने निर्णय पर रोक लगा दी।
क्यों दुर्लभ है यह आदेश?
20 नवंबर का विवादित फैसला तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने दिया था। परंपरा के अनुसार, समान या छोटी पीठ किसी पूर्व समान-शक्ति वाली पीठ के कानूनी निष्कर्षों से बंधी होती है। इसके बावजूद, समान शक्ति की पीठ द्वारा उस निर्णय पर रोक लगना न्यायिक मिसालों के लिहाज से असामान्य माना जा रहा है। खास बात यह भी है कि हाल ही में पूर्व CJI बी.आर. गवई—जो उस फैसले के लेखक थे—ने एक टीवी इंटरव्यू में अपने तर्कों का बचाव किया था।
जनआक्रोश और पर्यावरणीय चिंता
अरावली को लेकर नए मानक को पर्यावरणीय सुरक्षा में ढील के रूप में देखा गया, जिसके बाद पर्यावरणविदों और नागरिक समूहों में व्यापक असंतोष दिखा। इसी पृष्ठभूमि में अदालत का स्वतः संज्ञान लेना बताता है कि शीर्ष न्यायालय ने जनभावना और संभावित दुष्परिणामों को गंभीरता से लिया।
पहले भी हुआ है आत्म-संशोधन
हालांकि ऐसा बहुत कम होता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट पहले भी जनआक्रोश के बाद अपने आदेशों पर पुनर्विचार कर चुका है—अक्सर सरकार या प्रभावित पक्षों की पहल पर।
फरवरी 2019: वनाधिकार कानून के तहत दावों की अस्वीकृति पर बेदखली आदेश को, आलोचना के बाद, उसी पीठ ने स्थगित किया और उचित प्रक्रिया अपनाने को कहा।
मार्च 2018: SC/ST अत्याचार निवारण अधिनियम में गिरफ्तारी से जुड़े “सुरक्षा उपायों” पर विरोध के बाद, अदालत ने मामला बड़ी पीठ को भेजा और विवादित आदेश वापस लिया; इस बीच केंद्र ने कानून में संशोधन भी किया।
पर्यावरण संरक्षक के रूप में कोर्ट की भूमिका
अरावली पर ताज़ा हस्तक्षेप से यह भी झलकता है कि सुप्रीम कोर्ट स्वयं को पर्यावरण के संरक्षक के रूप में कैसे देखता है। वायु प्रदूषण पर एम.सी. मेहता मामले में दशकों से निगरानी, दिल्ली में CNG परिवर्तन, और गोदावर्मन थिरुमुलपाड़ केस (1995) में वन संरक्षण के कड़े मानक—ये सभी उदाहरण हैं। अरावली क्षेत्र में 1996 से खनन और निर्माण पर पाबंदियों तथा 2023 में दिल्ली रिज की पारिस्थितिक अहमियत पर जोर देने वाले आदेश भी इसी परंपरा का हिस्सा हैं।
अरावली की 100 मीटर परिभाषा पर रोक न सिर्फ कानूनी प्रक्रिया के लिहाज से दुर्लभ है, बल्कि यह संकेत भी देती है कि पर्यावरणीय मामलों में सुप्रीम कोर्ट सार्वजनिक भरोसे और वैज्ञानिक समीक्षा—दोनों को प्राथमिकता देने को तैयार है। अब निगाहें विशेषज्ञ रिपोर्ट और आगे की सुनवाई पर टिकी हैं।
