नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट आज उस अहम सवाल पर अपनी राय सुनाएगा, जिसे राष्ट्रपति द्वारा Article 143 के तहत शीर्ष अदालत को भेजा गया था। यह सवाल राज्यों के गवर्नर की भूमिका और उनकी कार्यप्रणाली से जुड़ा है । क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित Bills पर गवर्नर के लिए कोई अनिवार्य टाइमलाइन तय की जा सकती है, जबकि संविधान में ऐसी कोई स्पष्ट समयसीमा नहीं दी गई है? यह मुद्दा हाल के वर्षों में कई राज्यों में बढ़ते विवादों और गवर्नर–राज्य सरकार के टकराव के बीच बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
10 दिन चली सुनवाई, आज मिलेगा जवाब
मुख्य न्यायाधीश सीजेआई बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने 11 सितंबर को 10 दिनों तक चली लंबी सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। आज इस पर सुप्रीम कोर्ट अपनी राय सार्वजनिक करेगा।
सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से पक्ष रखा।
कई विपक्ष शासित राज्यों ने किया विरोध
राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए इस Presidential Reference का तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब और हिमाचल प्रदेश जैसे कई विपक्ष शासित राज्यों ने कड़ा विरोध किया। इन राज्यों का कहना था कि यह मुद्दा पहले से ही न्यायालय में लंबित है और Article 143 के तहत राय लेना आवश्यक नहीं था।
क्यों महत्वपूर्ण है यह फैसला?
कई राज्यों ने आरोप लगाया है कि गवर्नर बिलों पर जानबूझकर फैसला टालते हैं। इससे राज्य सरकारों के कामकाज पर असर होता है और संवैधानिक संकट जैसी स्थिति बनती है। सुप्रीम कोर्ट की राय भविष्य में Governor’s Assent Timeline, Legislative Process, और Centre-State Relations को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
राष्ट्रपति ने Article 143 के तहत क्यों भेजा मामला?
Article 143 के तहत राष्ट्रपति तब सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकते हैं जब किसी संवैधानिक प्रावधान को लेकर गंभीर विवाद हो या उसकी व्याख्या की आवश्यकता हो।
पिछले कुछ वर्षों में कई राज्यों ने शिकायत की है कि गवर्नर:
बिलों को महीनों- महीनों रोक देते हैं
कभी “pending consideration” पर रख देते हैं
कभी उन्हें वापस भेज देते हैं
और कई बार Bill को बिल्कुल भी Assent नहीं देते
इससे सरकार का विधायी कामकाज रुक जाता है।
इसी वजह से राष्ट्रपति ने पूछा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट गवर्नरों के लिए टाइमलाइन तय कर सकता है?
क्या संविधान गवर्नरों को अनिश्चित समय तक बिल रोके रखने की अनुमति देता है?
समस्या कहां से शुरू हुई?
पिछले 2–3 वर्षों में यह विवाद सबसे ज्यादा इन राज्यों में देखा गया:
तमिलनाडु – कई Bills महीनों तक गवर्नर ने लंबित रखे
केरल – गवर्नर और राज्य सरकार में लगातार टकराव
पंजाब – मुख्यमंत्री ने SC में याचिका подी
तेलंगाना – गवर्नर द्वारा फ़ाइलें रोके जाने की शिकायत
पश्चिम बंगाल और कर्नाटक – समान शिकायतें
इस तरह राष्ट्रपति का Reference असल में गवर्नर बनाम राज्य सरकार की शक्तियों को संतुलित करने से जुड़ा है।
मुख्य कानूनी सवाल जिन पर सुप्रीम कोर्ट ने बहस की
- क्या गवर्नर Bill को अनिश्चित समय तक रोक सकते हैं?
संविधान में स्पष्ट समयसीमा नहीं है
लेकिन संविधान का उद्देश्य “cooperative federalism” है
कई विशेषज्ञों ने कहा कि लंबित रखना एक तरह की pocket veto है, जो भारतीय संविधान का हिस्सा नहीं है
- क्या कोर्ट टाइमलाइन तय कर सकता है?
कुछ राज्यों ने कहा: हाँ, SC संविधान के “basic structure” की रक्षा के लिए दिशा-निर्देश दे सकता है।
केंद्र ने कहा: टाइमलाइन तय करना विधायिका का काम है, कोर्ट का नहीं।
- क्या राष्ट्रपति का Reference उचित है जबकि केस पहले से कोर्ट में लंबित था?
विपक्षी राज्यों ने कहा: यह अनावश्यक और राजनीतिक कदम है,केंद्र ने कहा: नहीं, यह संविधान की गहरी व्याख्या का विषय है
SC की पिछली टिप्पणियाँ (सुनवाई के दौरान)
Constitution Bench ने सुनवाई में कहा था:
गवर्नर “elected government” की सलाह पर ही काम करते हैं
गवर्नर को Bill रोकने का अनंत अधिकार नहीं है
संविधान में “delay” की अनुमति है, “deadlock” की नहीं
इन टिप्पणियों के बाद फैसले में महत्वपूर्ण निर्देश आने की संभावना बढ़ गई है।
यदि सुप्रीम कोर्ट टाइमलाइन तय करता है तो क्या असर पड़ेगा?
- गवर्नर–राज्य सरकार टकराव कम होंगे
विशेषकर विपक्ष-शासित राज्यों में प्रशासनिक जाम खत्म होगा।
- विधायी प्रक्रिया तेज होगी
Bills महीनों तक लटके रहने की समस्या खत्म हो सकती है।
- कई राज्यों में पुरानी याचिकाओं का समाधान आसान होगा
कर्नाटक, पंजाब, तमिलनाडु में दर्जन भर से अधिक बिल अटके हैं।
अगर कोर्ट टाइमलाइन तय नहीं करता तो?
मामला राजनीतिक रूप ले सकता है
राज्य सरकारें केंद्र और गवर्नर पर आरोप बढ़ाएँगी
संविधान संशोधन की मांग उठ सकती है
संभावित निष्कर्ष जिनकी चर्चा चल रही है (अंदाज़ा, आधिकारिक नहीं)
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि कोर्ट ऐसे दिशा-निर्देश दे सकता है:
Bill प्राप्त होने के 30–60 दिनों के भीतर निर्णय लेना होगा
अगर वापस भेजा गया Bill दोबारा पास हो जाता है तो गवर्नर का Assent अनिवार्य होगा
Pocket veto जैसी प्रथा असंवैधानिक घोषित की जा सकती है
