नई दिल्ली: दिल्ली से गुजरात तक लगभग 650 किलोमीटर में फैली अरावली पर्वतमाला, जो दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, आज अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है। करीब 3.2 अरब वर्ष पहले अस्तित्व में आई यह पर्वतमाला आज न्यायिक और नीतिगत फैसलों के चलते पहचान के संकट में फंसती नजर आ रही है।
अरावली भले ही अब अपने मूल स्वरूप का एक अंश भर रह गई हो, लेकिन यह क्षेत्र जैव विविधता, जल संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सुप्रीम कोर्ट ने भी वर्ष 2004 में माना था कि अरावली में सहारन, इथियोपियन, प्रायद्वीपीय, ओरिएंटल और मलय क्षेत्र की वनस्पतियां और जीव-जंतु पाए जाते हैं।
संरक्षण से विनाश तक का न्यायिक सफर
पिछले लगभग तीन दशकों से अरावली सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक हस्तक्षेप के केंद्र में रही है। 1990 के दशक में पर्यावरण वकील एम.सी. मेहता की याचिका के बाद अदालत ने अरावली में खनन रोकने जैसे सख्त कदम उठाए थे।
लेकिन विडंबना यह है कि जिस न्यायिक प्रक्रिया का उद्देश्य अरावली को बचाना था, वही आज इसके लगभग पूर्ण विनाश का कारण बनती दिख रही है।
2025 का फैसला और परिभाषा का विवाद
20 नवंबर 2025 को दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला, जो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस भूषण गवई के सेवानिवृत्ति से पहले आया, निर्णायक साबित हुआ। अदालत ने केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित उस परिभाषा को स्वीकार कर लिया, जिसके तहत 100 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले भू-आकृतियों को ही अरावली पर्वत माना जाएगा।
इस फैसले से 100 मीटर से कम ऊंचाई वाले पहाड़ और ढलान अरावली की परिभाषा से बाहर हो गए, जिससे इन क्षेत्रों में खनन का रास्ता साफ हो गया।
पहले ही गायब हो चुके हैं कई पहाड़
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) की ग्राउंड ट्रुथिंग रिपोर्ट के अनुसार, राजस्थान में अध्ययन किए गए 128 पहाड़ों में से 31 पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में इस स्थिति पर चिंता जताते हुए कहा था कि राजस्थान सरकार ने खनन को बेहद हल्के में लिया है।
समिति की रिपोर्ट और विरोधाभास
पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित समिति ने स्वीकार किया कि केवल ऊंचाई और ढलान के आधार पर अरावली को परिभाषित करना वैज्ञानिक रूप से त्रुटिपूर्ण हो सकता है। समिति ने यह भी कहा कि अरावली की खासियत इसकी ऊंचाई नहीं, बल्कि इसका पारिस्थितिक योगदान है।
इसके बावजूद, समिति ने अंततः 100 मीटर ऊंचाई को ही आधार बनाकर परिभाषा तय कर दी, जिससे बड़े पैमाने पर अरावली क्षेत्र खनन के लिए खुल गया।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उठे सवाल
विशेषज्ञों का कहना है कि अदालत ने FSI की व्यापक परिभाषा और समिति की संकीर्ण परिभाषा के फायदे-नुकसान का तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया। फैसले में यह भी स्पष्ट नहीं किया गया कि नई परिभाषा से कितना क्षेत्र अरावली से बाहर हो जाएगा।
जनभागीदारी का अभाव
इस मामले में पर्यावरण समूहों, स्थानीय नागरिकों और खनन से प्रभावित समुदायों को सुनवाई का अवसर नहीं मिला। समिति की परिभाषा सार्वजनिक नहीं की गई, जिससे हस्तक्षेप की कोई वास्तविक संभावना ही नहीं रही। विशेषज्ञ मानते हैं कि आज पर्यावरण से जुड़े कई बड़े फैसले सीमित लोगों की भागीदारी में लिए जा रहे हैं, जिनके दूरगामी परिणाम पूरे समाज को भुगतने पड़ते हैं।
अल्पकालिक लाभ बनाम दीर्घकालिक नुकसान
पर्यावरण कानून विशेषज्ञ ऋत्विक दत्ता के अनुसार, अरावली की यह नई परिभाषा कुछ लोगों के अल्पकालिक आर्थिक लाभ को पर्यावरण और समाज के दीर्घकालिक हितों पर तरजीह देती है। उन्होंने चेतावनी दी कि प्रकृति अदालत में खुद बोल नहीं सकती। जब वह बोलती है, तो बाढ़, भूस्खलन और सूखे के रूप में। अरावली पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला केवल एक कानूनी मुद्दा नहीं, बल्कि पर्यावरणीय भविष्य से जुड़ा गंभीर सवाल है। विशेषज्ञों की मांग है कि अरावली की परिभाषा पर पुनर्विचार किया जाए, ताकि भारत की इस प्राचीन प्राकृतिक धरोहर को बचाया जा सके।
