कुल्लू. कुल्लू जिले के आनी तहसील मुख्यालय से महज तीन किलोमीटर दूर सैंज-लूहरी-आनी-औट राष्ट्रीय उच्च मार्ग 305 पर स्थित शमशर गांव में चार गढ़ों के गढ़पति शमशरी महादेव का मंदिर है. प्राचीन महादेव मदिंर परिसर में अंकित इतिहास के अनुसार यह मंदिर दो हजार साल पुराना है. जाहिर है, मान्यताओं के अलावा ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह मंदिर काफी महत्वपूर्ण माना जाता है.
टांकरी शैली में लिखा है इतिहास
मंदिर का इतिहास टांकरी शैली में लिखा हुआ है. हिमाचल के प्रख्यात टांकरी विद्वान खूबराम खुशदिल ने टांकरी में लिखे अनुवाद के हिन्दी विवरण में बताया है कि इस देव परिसर का विक्रमी सम्वत के अनुसार सन 57 में पुनर्निमाण किया गया. इससे माना जाता है कि यह मंदिर दो हजार साल पुराना है. शमशरी महादेव की कहानी भी उनके नाम को सार्थक करती है ‘शमशर’ शब्द के सन्धि विच्छेद में शम’ का अर्थ पहाड़ी भाषा में ‘पीपल’ के वृक्ष को कहते हैं, जबकि ‘शर’ या ‘सर’ का मतलब ‘तालाब’ होता है.
यह है अवतरण कथा
मान्यताओं के अनुसार शमशर से कुछ दूरी पर प्राचीन गांव कमांद से एक ग्वाला प्रतिदिन अपने मालिक की दुधारू गाय को चराने शमशर गांव में आता था. परन्तु अक्सर सायंकाल के समय जब उसका मालिक उसे दुहने की कोशिश करता मगर उसके थनों में दूध न पाकर निराश हो जाता और अपने ग्वाले नौकर को डांटता. एक दिन मालिक ने ग्वाले का पीछा किया तो पाया कि वह गाय एक पीपल के पेड़ के नीचे अपने थनों से दूध इस तरह से डाल रही थी मानों वो शिवलिंग पर दूध चढ़ा रही हो. उसी रात देवता ने उस ग्वाले के मालिक को दर्शन दे कर कहा कि जहां तुम्हारी गाय रोज मुझे दूध चढ़ाती है, उसी ‘शम’ यानि ‘पीपल’ के पेड़ के नीचे मेरा भू-लिंग है उसे वहां से निकालकर पीछे की पहाड़ी पर स्थित गांव में स्थापित करो.

मंदिर को अर्पित किया जाता है गांव का पहला घी
आज भी कमांद गांव से ही भोलेनाथ पर गाय का घी सर्वप्रथम चढ़ाया जाता है. मान्यता है कि देवता की आज्ञा के बिना क्षेत्र में कोई भी कार्य सम्पन नहीं होता. तीन या सात साल जिसे सतराला भी कहा जाता है बाद जब शमशरी महादेव फेरों पर निकलते हैं तो क्षेत्र में कोई भी शुभ कार्य अमल में नहीं लाया जाता. देवता के हर धार्मिक अनुष्ठान के दौरान इसके कार्यक्षेत्र या दायरे में आने वाले हर घर से कम से कम एक व्यक्ति को प्रतिदिन कार्य में सहयोग देना होता है.
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