अहमदाबाद. गुजरात विद्यापीठ के नियम-कायदे गांधी दर्शन के हिसाब से है. क्लास का पहनावा खादी है. वहीं, छात्रों के लिये छह महीने के सेमेस्टर में 60 घंटे का श्रम अनिवार्य है. इनमें सड़क की सफाई से लेकर फोटोग्राफी तक और सोलर सिस्टम की मरम्मत से लेकर छत पर लगे सब्जियों की देखरेख की जिम्मेवारी शामिल है.
कैंपस की समस्या का हल भी गांधी दर्शन से निकालने की कोशिश की गई है. कैम्पस को रोशन करने के लिये सोलर पैनल लगे हैं. वहीं, ठंडे पानी के लिये ‘प्राकृतिक वाटर कूलर’ हैं. कचरा से निपटने के लिये कंपोस्ट संयंत्र बने हैं. छत पर खेती होती है और कसरत करते हुये साइकिल में हवा भरने और पेड़ों को पानी पटाने की व्यवस्था की गई है.
कैम्पस में कोई छात्र संगठन सक्रिय नहीं हैं. समाज कार्य विभाग में पढ़ाने वाले अला भाई इसकी वजह भी गांधी दर्शन को मानते हैं. वे कहते हैं, “ गांधी कर्तव्य में यकीन रखते थे, उनके लिये अधिकार से बड़ा कर्तव्य था, जबकि यूनियन सिर्फ अधिकार की बात करती है. इसलिये कैम्पस में छात्रों या शिक्षकों का कोई यूनियन नहीं है.”
हालांकि गुजरात विद्यापीठ के कई छात्र अलग-अलग संगठनों से जुड़े हैं और विभिन्न विचारधारा को मानते हैं. कैंपस में छात्र संगठनों के सक्रिय नहीं होने के बावजूद भी छात्र अपनी मांग प्रशासन से रखते रहे हैं. पत्रकारिता में रिसर्च कर रहे हितेश ने कुछ साथियों के साथ कैंटिन में मिलने वाले खानों की बढ़ी कीमत और खराब गुणवत्ता की शिकायत प्रशासन से की थी. वे आम आदमी पार्टी के छात्र संगठन के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं.
प्रशासन ने यहां भी गांधीवादी उपाय निकाला. अब कॉलेज कैंन्टीन के प्रबंधन की जिम्मेदारी भी शिकायत करने वाले तीन छात्रों को दे दी गई है. तीनों पत्रकारिता विभाग के ही छात्र हैं, लेकिन अलग-अलग राजनीतिक दल का समर्थन करते हैं. भाजपा समर्थक राम कहते हैं कि विचारधारा अपने जगह है लेकिन जिम्मेवारी को पूरा करना उनकी पहली प्राथमिकता है.
कैन्टिंग प्रबंधन की जिम्मेदारी लेने के बाद शिकायतकर्ता तीनों छात्रों के काम बढ़ गये हैं. उनकी दिनचर्या की शुरूआत सुबह 5 बजे कैंटिन की सफाई के साथ शुरू होती है जो रात 10 बजे हिसाब का लेखा-जोखा तक चलती है. पिछले 16 महीने से कैंटिग का प्रबंधन संभाल रहे राम कहते हैं, “खाने के सामानों के दाम घटाने के साथ-साथ गुणवत्ता बढ़ाई गयी है, वहीं, सफाई पर भी उनका पूरा ध्यान रहता है.” हालांकि राशन की कीमत बढने से पिछले चार महीनों से घाटा होने लगा है.
अब उनका पूरा ध्यान घाटा को कम करना है, ताकि कम कीमत पर अच्छी गुणवत्ता का खाना परोसा जा सके. आखिर सवाल छात्र-नेतृत्व का भी है.