इस साल चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने के मौके पर राजकीय स्तर पर पूरे तामझाम के साथ महात्मा गांधी को याद करने का प्रयोजन किया गया. चंपारण में देश के तमाम गांधीवादियों को एकजुट करने के प्रयास भी हुए. नुक्कड़ सभाओं, नाटकों, सांस्कृतिक आयोजनों से लेकर मीडिया कवरेज तक में खूब शोर-शराबा दिखा. इसी बहाने इतिहास को खंगालने के प्रयास भी शुरू हुए. गांधीजी को पहली बार चंपारण कौन ले गया जैसे विवाद भी उठ खड़े हुए या यूं कहें कि उठाए गए.
चंपारण का वासी होने के नाते मैं अपनी जगह की इतनी बातें देख-सुनकर और उसके इतिहास के बारे में पढ़कर भाव विभोर हो उठा. पहले कभी मैं कहता था कि मैं चंपारण का रहने वाला हूं तो ज़िले की व्याख्या के रूप में मुझे गांधी और ज़िले से जुड़े इतिहास के बारे में एक-दो पंक्तियां कहनी पड़ती थीं. तब शायद लोग समझ पाते थे. अब मुझे लगता है कि चंपारण पहचान का मोहताज नहीं रहेगा लेकिन बात सिर्फ़ चंपारण को स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में उचित जगह मिलने या गांधीजी के जीवन में चंपारण की भूमिका को रेखांकित करने भर की नहीं है.
सवाल यह है कि क्या गांधीजी की प्रतिमा पर मल्यार्पण कर एक बार फिर उन्हें ठगने की कोशिश तो नहीं की गई है? सीधी बात करूं तो जब हम गांधीजी के आदर्शों को पहले ही मार चुके हैं तो फिर अब गांधी की प्रतिमा को प्रतिष्ठित करते रहने की कवायद भर से हम कब तक आत्मग्लानी से बच पाएंगे. आज जिस राजनीतिक असहिष्णुता के दौर में हम रहने को अभिशप्त हो चुके हैं वो दौर हमें सिर्फ गांधी की याद नहीं दिलाती बल्कि उनके राजनीतिक-सामाजिक मूल्यों की सख़्त जरूरत की मांग करती है. लेकिन हमें रस्म अदायगी की ऐसी लत लगी हुई है कि इस पर ठहर कर सोचने की जरूरत भी नहीं महसूस होती. यह काम भी हमने कुछ मौकापरस्त बुद्धिजीवियों और एनजीओ नुमा संगठनों के भरोसे रख छोड़ा है.
सबसे बड़ी विडंबना देखिए कि चंपारण सत्याग्रह का आयोजन जिस बिहार सरकार की ओर से किया जा रहा है उसके मुखिया वही नीतीश कुमार है जिन्होंने इसी चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष में बीजेपी के साथ एक बार फिर से हो लिए हैं. उसी बीजेपी के साथ जिसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की विचारधारा पर गांधीजी की हत्या का इल्ज़ाम लगता रहा है. नीतीश कुमार और उनकी पार्टी तीन साल पहले तक भी बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए की घटक थी.
शायद ही कोई बिहार की राजनीति को देखने-समझने वाला इस बात से इंकार कर पाए कि बिहार में एनडीए सरकार के सत्ता में रहने के दौरान संघ ने बिहार के गांव-गांव में अपने पांव पसारे हैं. सिर्फ़ चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हरा भर देने से यह अनुमान ना लगाया जाए कि राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी का आधार बिहार में मजूबत नहीं है. गांधी के चंपारण की एक और विडंबना देखिए. साल 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में चंपारण (पूर्वी और पश्चिमी दोनों) ही ऐसी जगह थी जिसने भाजपा की आबरू बचाई थी. इन चुनावों में भाजपा को मिले 53 सीट में से 12 चंपारण के दोनों ज़िलों से आई थी. इन दोनों ही ज़िलों में कुल 21 विधानसभा की सीटें हैं.
बात सिर्फ चुनावी राजनीति की नहीं है. बल्कि संघ और भाजपा की विचारधारा का एक व्यापक सामाजिक आधार इन दिनों खड़ा हुआ है. भाजपा की चुनावी जीत और दूसरे दलों की चुनावी जीत में यह एक बड़ा अंतर है. भाजपा की जीत के मायने बहुत हद तक उसकी विचारधारा को मिलने वाली सामाजिक स्वीकृति से है लेकिन दूसरे दलों के साथ ऐसा नहीं है.
अब तक गांधी-नेहरू की विरासत पर दावा करने वाली कांग्रेस, लोहियावादी दलों या फिर बहुजन पार्टियों की जीत के मायने क्या आप यह लगा सकते हैं कि इन दलों से जुड़ी राजनीतिक विचारधारा की जीत हुई है. अगर ईमानदारी से जवाब ढूढे तो आपको ना में जवाब मिलेगा. अगर इसका जवाब सकारात्मक होता तो फिर इन दलों को यह दिन देखने ही ना होते. आज जब चंपारण सत्याग्रह के बहाने धूमधाम से गांधीजी को याद करने की कवायद हो रही है तो क्या इन सवालों पर भी ईमानदारी से विचार करने की जहमत राजनीतिक दल उठा रहे हैं. किसी भी सच्चे गांधीवादी के लिए यह विचलित करने वाले तथ्य हैं.
संघ की विचारधारा को गांधीवाद ने ही सबसे पहले मजबूत चुनौती दी थी. उन्हें इसकी क़ीमत अपनी जान देकर गंवानी पड़ी. यह भी क्या विडंबना है कि जिस गांधी को हम अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सत्य और अहिंसा के प्रयोग के लिए इतना ऊंचा दर्जा देते हैं, उन्हें वो अंग्रेज कभी छू तक ना सके. उन्हें तो अपनी गोलियों का निशाना बनाने वाला हमारे बीच का ही था. वजह थी संप्रदायिकता के खिलाफ गांधीजी का दृढ़ संघर्ष और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में अटूट श्रद्धा. हां, वही धर्मनिरपेक्षता जिसका आज के युवा और अधेड़ उम्र के लोग माखौल उड़ाते हैं. जो एक खालिस राजनीतिक शब्दावली बन चुकी है. जिसके मायने तथाकथित धर्मनिरेपक्ष शक्तियों ने खोखला कर डाले है. किसके सिर पर ठिकरा फोड़िएगा इसका. धर्मनिरपेक्षता गांधीजी के जीवन मूल्यों में एक था ना कि महज राजनीतिक मूल्य.
आज जब संघ और भाजपा की राजनीति के ख़िलाफ़ विपक्ष के लामबंद होने की बात पर जोर दिया जा रहा है वहां ये सवाल असहज और परेशान करने वाले हो सकते हैं. लेकिन क्या इन सवालों से बचकर सिर्फ रस्म अदायगी का फर्ज निभा लेने भर से मुकम्मल विकल्प पेश किया जा सकेगा. इससे तो सिर्फ मौकापरस्त चुनावी राजनीति का उल्लू ही सीधा हो पाएगा. और अब तो विपक्षी एकता के नारे को भी नीतीश ने बट्टा लगा दिया है.
क्या चंपारण सत्याग्रह को याद करते हुए उस आंदोलन के चरित्र पर भी बात किया जाएगा या उसे समझने की कोशिश की जाएगी. और फिर उसे राजनीति का आधार बनाने का साहस कोई राजनीतिक दल ईमानदारी से कर पाएगा. या फिर गांधी लाख सम्मान पाने के बावजूद अपने आख़िरी दिनों की तरह अकेले रह जाएंगे. कहने का लब्बोलुआब यह है कि क्या मौजूदा असहिष्णुता और संप्रदायिकता की राजनीति का मजबूत विकल्प गांधी के जरिए तलाशा जाएगा या फिर एक बार सिर्फ़ औपचारिकता भर ही ये आयोजन बन कर रह जाएंगे.
सच तो यह है कि 30 जनवरी 1948 के बाद से हर रोज़ गांधी मारे जा रहे हैं. उनको मारने वाली विचारधारा ने योजनाबद्ध तरीके से इस काम को अंजाम दिया है. इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली भारत की एकमात्र महापुरूष विहिन राजनीतिक संगठन ने गांधी को ना सिर्फ़ हड़पने में एक हद तक कामयाबी हासिल की है बल्कि यूं कहे कि उनकी विचारधारा को भी तस्वीरों तक महदूद कर दिया है. अब तो तस्वीरों में भी सिर्फ चश्मा (स्वच्छता अभियान के संदर्भ में) ही दिख रहा है. इसके लिए तथाकथित प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक शक्तियां भी कम दोषी नहीं है. उन्होंने भी आज तक गांधी की प्रतिमा पर सिर्फ माला ही चढ़ाया है और उनके देवत्व के सामने माथा टेके हैं.
कहने का आशय यह बिल्कुल भी नहीं है कि गांधीजी की प्रतिमा या तस्वीर हम ना बनाए या फिर उस पर माल्यार्पण ना करें या फिर उन्हें याद ना करें. लेकिन विरोधाभाष के इस दर्शन पर गौर करते हुए उससे बचने का प्रयास जरूर करना चाहिए कि जिसकी तस्वीर हम लगा लेते हैं उसकी तरह हम बनना नहीं चाहते. हम मान लेते हैं कि वह बहुत विशिष्ट हैं, विलक्षण हैं, अद्वितिय हैं, हमारे सामर्थ्य से बाहर है उन जैसा होना. हम और आप और इस देश के लोग गांधी नहीं हो सकते तो ना हो. इसकी इतनी जरूरत भी नहीं लेकिन गांधी को हर रोज मरने से तो बचा सकते हैं. इतना ही काफी होगा. उस दिन तो नहीं बचा सके थे. 30 जनवरी 1948 से कुछ कदम तो आगे बढ़ें.
—लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.