नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत भेजे गए उस संदर्भ पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने की समयसीमा से जुड़े सवाल उठाए गए थे। सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की बेंच, जिसमें मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति सूर्या कांट, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुर्कर शामिल थे, ने इस मामले की सुनवाई दस दिनों तक की। देश के अटॉर्नी जनरल आर.वेंकटरमणी की दलीलें पूरी होने के बाद बेंच ने फैसला सुरक्षित रख लिया।
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से दलीलें रखीं और विपक्ष शासित तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब और हिमाचल प्रदेश द्वारा इस संदर्भ का विरोध करने पर जवाब दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह तमिलनाडु राज्यपाल मामले में आए निर्णय की समीक्षा नहीं करेगा, बल्कि केवल संविधान से जुड़े सवालों का जवाब देगा। कई राज्यों ने यह कहते हुए आपत्ति जताई कि यह मुद्दा पहले ही तमिलनाडु राज्यपाल मामले में तय हो चुका है।
दो जजों की बेंच ने तमिलनाडु राज्यपाल मामले में निर्णय दिया था
राष्ट्रपति संदर्भ मई में तब भेजा गया था जब दो जजों की बेंच ने तमिलनाडु राज्यपाल मामले में निर्णय दिया था, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर समयसीमा तय करने की बात कही गई थी। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि राज्यपाल विधेयकों को विधानसभा को लौटाए बिना रोक सकते हैं, तो यह निर्वाचित सरकार को राज्यपाल की मनमानी पर निर्भर कर देगा।
मई में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने अनुच्छेद 143(1) का उपयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट से यह जानना चाहा कि क्या विधेयकों पर निर्णय लेने में राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियों पर न्यायिक आदेशों द्वारा समयसीमा लगाई जा सकती है। यह कदम सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल के निर्णय के बाद उठाया गया था, जिसमें तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की शक्तियों पर चर्चा हुई थी।
राष्ट्रपति मुर्मु ने पाँच पन्नों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे और अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों पर कोर्ट की राय मांगी। यह मामला संविधान और लोकतांत्रिक शासन की दिशा में एक अहम चर्चा बन गया है।