नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ अधिनियम, 1995 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर केंद्र सरकार और राज्यों को नोटिस जारी कर दिया है। मंगलवार को चीफ जस्टिस बी. आर. गवई और जस्टिस ए. जी. मसीह की पीठ ने यह नोटिस दिल्ली निवासी निखिल उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई करते हुए जारी किया। इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट में पहले से लंबित हरि शंकर जैन और एक अन्य याचिकाकर्ता की याचिका के साथ टैग किया गया है।
CJI ने पूछा- “अब क्यों विचार करें?”
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सबसे पहले सवाल उठाया कि “अब 1995 के अधिनियम को चुनौती क्यों दी जा रही है?”
कोर्ट ने याचिकाकर्ता हरि शंकर जैन के वकील विष्णु शंकर जैन से यह स्पष्टीकरण मांगा। वकील ने बताया कि यह याचिका काफी पहले ही दाखिल की गई थी, लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने इसे उच्च न्यायालय में ले जाने की सलाह दी थी। हालांकि, पीठ इस तर्क से पूरी तरह सहमत नहीं दिखी।
अश्विनी उपाध्याय ने क्या कहा?
वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने बताया कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने 2025 के वक्फ संशोधन अधिनियम को लेकर जो मामले सुने थे, उन्हीं में 1995 के अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिकाओं को अलग से सूचीबद्ध करने का निर्णय लिया गया था।
उन्होंने 17 अप्रैल 2025 के आदेश का हवाला दिया जिसमें कहा गया कि 1995 के वक्फ अधिनियम और 2013 के संशोधनों को चुनौती देने वाली रिट याचिकाओं को अलग वाद सूची में दर्शाया जाएगा। साथ ही, वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं को जवाब दाखिल करने की अनुमति दी जाती है।”
सरकार की प्रतिक्रिया: ‘कोई आपत्ति नहीं’
केंद्र सरकार की ओर से पेश एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक 1995 के अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिकाओं को 2025 के संशोधन मामलों से जोड़कर सुनने की अनुमति नहीं दी है।
हालांकि, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यदि अश्विनी उपाध्याय की याचिका को विष्णु शंकर जैन की याचिका के साथ टैग किया जाता है, तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है।
पीछे की पृष्ठभूमि: क्यों बढ़ा विवाद?
1995 में पारित वक्फ अधिनियम के तहत देशभर में वक्फ संपत्तियों की देखरेख के लिए वक्फ बोर्ड गठित किए गए। लेकिन हाल के वर्षों में वक्फ संपत्तियों पर दावे और विवाद बढ़ने के कारण कई लोग अधिनियम को संविधान विरोधी और पक्षपाती मान रहे हैं।
विशेषकर 2025 के संशोधनों के बाद इस मुद्दे ने और तूल पकड़ लिया है। इन्हीं संशोधनों को आधार बनाकर वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अधिनियम को चुनौती दी है।
निष्कर्ष: क्या 1995 का कानून अब संविधानिक समीक्षा के घेरे में?
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी कि “अब इतने सालों बाद क्यों विचार किया जाए?” इस बात को स्पष्ट करती है कि अदालत इस कानून की वैधता पर गहराई से विचार करना चाहती है। अब देखना होगा कि आगे की सुनवाई में कोर्ट इस कानून की संवैधानिकता, धार्मिक तटस्थता, और कानूनी आधार पर क्या फैसला सुनाती है।