जयपुर. रेलवे स्टेशनों-बस अड्डों पर चमकते कवर वाली अपराध कहानियों-जासूसी उपन्यासों की एक पूरी दुनिया है, और पिछले कई दशकों से हिंदी अपराध साहित्य की इस दुनिया के बेताज बादशाह रहे हैं सुरेन्द्र मोहन पाठक. कभी लुगदी कागज पर मेरठ के प्रकाशकों के हवाले से छपने वाला पाठक का तिलिस्मी संसार वर्षों पहले हार्पर कॉलिंस जैसे मकबूल प्रकाशन के ज़रिये ‘फाइन पेपर’ पर आ चुका है, और अंग्रेजी सहित कई अन्य भाषाओँ में अनुवादित हो चुका है. सैकड़ों उपन्यासों और जोक बुक्स के लेखक पाठन ने आज जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में अपनी आत्मकथा ‘न बैरी न कोई बेगाना’ के लोकार्पण के दौरान दिल के कई राज खोले, और कई किस्से साझा किये.
फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप ने किया किताब का लोकार्पण
किताब पर चर्चा वाले सत्र की शुरुआत एक ख़ुशगवार ट्विस्ट के साथ हुई, ऐन पाठक के जासूसी उपन्यासों की तरह. जब पाठक और पूनम सक्सेना बातचीत के लिए आये तो एक और मेहमान स्टेज पर उनके साथ मौजूद था- फ़िल्म डायरेक्टर अनुराग कश्यप. कश्यप ने माइक लेकर बताया कि सुरेंद्र मोहन पाठक से ये उनकी पहली मुलाकात है. वो उनके फैन रहे हैं और बरसों से उनसे मिलने के तमन्नाई थे. आज यूँ अचानक मौका मिलने से वो रोमांचित हैं. अनुराग कश्यप ने ही वेस्टलैंड प्रकाशन से छपी पाठक की आत्मकथा ‘का लोकार्पण किया.
ये ज़र्रे और आसमान की तुलना है
सत्र के दौरान पाठक के कई प्रशंसक एक सफ़ेद टी शर्ट पहने हुए थे जिसपर सामने सुरेंद्र मोहन पाठक का चेहरा बना था और पीछे लिखा था #SMPian. अनुराग कश्यप ने भी मौजूद फेंस से उस टी-शर्ट की फरमाइश की. फिर सवाल जवाब का सिलसिला शुरू हुआ.

मोहन राकेश, रविन्द्र कालिया जैसे बड़े साहित्यकार कभी जालन्धर डीएवी कॉलेज में सुरेन्द्र मोहन पाठक के सहपाठी हुआ करते थे. जब किसी दर्शक ने पूछा कि वो उनको अपने समकक्ष कहाँ पाते हैं तो पाठक ने ईमानदारी से जवाब दिया- “ये ज़र्रे और आसमान की तुलना है. मोहन राकेश जल्द चले गए. अगर रहते तो दुनिया के आला नाटककार होते.”
लेखक की जात-औकात को रीडर बनाता है, प्रकाशक नहीं
इतनी सारी सीरीज लिखने की वजह पूछने पर पाठक ने कहा- “मैं हलवाई की तरह हूँ. जलेबी न बिकने पर बर्फी बना लेता हूँ, उसके न बिकने पर लड्डू बना लेता हूँ.” प्रकाशक, लेखक और पाठक के रिश्ते पर उन्होंने कहा- “किसी प्रकाशक को अगर ये मुगालता है कि वो लेखक को मकबूल बना सकता है तो वो ये वहम दिल से निकाल दे. लेखक की जात-औकात को रीडर बनाता है. प्रकाशक लेखक और रीडर के बीच का पुल है.”
जिंदगी के शुरुवाती दिनों को याद करते हुए पाठक ने कहा- “मेरे पिता स्टेनोग्राफर थे. मैंने बहुत हलाखी में दिन गुज़ारे हैं. जो हासिल था उसी को अपनी स्ट्रेंथ बनाई. मैं अच्छा राइटर चाहे न होऊं, निष्ठावान राइटर ज़रूर हूँ. मेरी कमिटमेंट में कोई कमी नहीं है.”
मैं चाहता हूँ मेरे सामने ही मेरी ज़िंदगी का तंबू न उखड़े
सत्र के दौरान ही एक सवाल आया कि इतने सफल नोवेल्स लिखने के बावजूद उनके पास कभी उपन्यास पर फ़िल्म बनाने के लिए बॉलीवुड से कोई प्रस्ताव क्यों नही आया. जवाब में पाठक ने बताया कि प्रस्ताव तो कई आये, एक प्रकाशक तो अग्रिम राशि और वकील को साथ लेकर भी आया था लेकिन उसे विमल के सभी 42 नोवेल्स के अधिकार चाहिए थे. इतने नोवेल्स पर एक साथ फ़िल्म बनाना कैसे संभव है इसलिए उन्हें खड़े पैर वापिस कर दिया गया. पाठक ने आखिर में कहा- मैंने इस दुनिया में बहुत मकबूलियत हासिल की, बहुत नाम कमाया. कोई मेरे जीते जी ये न कह पाए कि पाठक कभी बहुत अच्छा लिखता था पर अब वो बात नहीं रही. मैं चाहता हूँ मेरे सामने ही मेरी ज़िंदगी का तंबू न उखड़े.”