एक इंसान जिस पर बलात्कार का आरोप है. उसके खिलाफ़ फैसला आते ही हिंसा शुरू हो गयी. पहले से अलर्ट जारी होने के बावजूद सरकार लाख से ऊपर लोगों को एक छोटे से शहर में इकठ्ठा होने देती है. मीडिया के जरिये पूरे देश को पता होता है कि हिंसा होने वाली है और इकट्ठा होने वाले लोग बलात्कार के आरोपी व्यक्ति के अंधभक्त हैं। लेकिन इन सब के बावजूद हिंसा होती है, एक के बाद एक शहर में हिंसा की यह आग भड़कती जाती है लोग जगह-जगह सरकारी संपत्ति जलाकर कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपने गुस्से का प्रदर्शन करते हैं. इस पूरे तमाशे में लगभग 36 लोग मारे जाते हैं. कानून को धता बताकर खूब बवाल होता है. प्रशासन पूरी तरह से बेसहारा नज़र आता है.
हम सब जानते हैं कि ये अब कोई नाटकीय दृश्य नहीं रह गया बल्कि हरियाणा के बहाने पूरे उत्तरी भारत में इस प्रहसन का एक अंक खेला जा चुका है. दरअसल बाबा के समर्थक जिस तरह से उत्पात मचा रहे थे उससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इनकी पहुँच कहाँ तक थी. इनके अंदर शासन-प्रशासन का कोई खौफ़ नही था. ऐसा लग रहा था मानो सरकार इन पर सख्ती से कार्रवाई करने के बजाय आत्मरक्षा की कोशिश कर रही हो. फैसला आने से पहले भी बाबा जब कोर्ट जा रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि किसी दक्षिण भारत फ़िल्म का शूट हो रहा हो. तकरीबन 300 से 400 तक गाड़ियों का काफिला सिरसा से पंचकुला तक ऐसे चला जैसे कोई राजा अपने लाव-लश्कर सहित दूसरे राज्य की यात्रा पर निकला हो.
बलात्कार के आरोपी बाबा राम रहीम लोकसभा चुनाव 2014 में बीजेपी सरकार को समर्थन दे चुके थे और चुनाव जीतने के बाद खट्टर सरकार अपनी कैबिनेट के साथ बाबा के दर्शन को भी गए थे. अगर ज्यादा दूर न जाएं और हाल ही कि बात करें तो फैसला आने से 10 दिन पहले सरकार की ओर से 15 अगस्त को बाबा के जन्मदिन पर दो कैबिनेट मिनिस्टर मिलने गए थे. बाबा के पैर छूकर उन्होंने सरकार की ओर से 51 लाख की भेंट दी. ऐसा नही है कि बाबा से बस बीजेपी का ही रिश्ता है. इससे पहले राम रहीम ने कांग्रेस का समर्थन भी किया था और सरकार भी कांग्रेस की ही बनी थी.
देश में इतनी बड़ी हिंसा हुई और विपक्ष एकदम खामोश बैठा है? ऐसा कैसे हो सकता है? सरकार की तो बात छोड़िये किसी भी नेता ने खुलकर इसका विरोध नही किया. किसी ने भी पीड़िता के हक़ में एक बार भी आवाज़ उठाना मुनासिब नही समझा. उल्टा कुछ नेता, बाबा के समर्थन में उतर आए और न्यायालय तक को ज़िम्मेदार ठहराने में नही चूके. अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जिस व्यक्ति के आगे पक्ष-विपक्ष सब नतमस्तक हों, उसे सज़ा दिलाने के लिये लड़ने वाले लोगों को सालों तक किस तरह के डर और धमकियों से गुज़रना पड़ा होगा.
पत्रकार रामचंद्र छत्रपति ने अपने अखबार ‘पूरा सच’ में उस साध्वी की चिट्ठी छापी जिसमे बाबा का सारा कच्चा-चिट्ठा मौजूद था. महिला को धमकी भी मिली और बाबा के भक्त होने की वजह से घर वालों का सपोर्ट भी नही मिला. एक पीड़ित महिला को तो उसके ससुराल वालों ने घर से ही निकाल दिया क्योकि वो डेरा समर्थक थे. इसके अलावा साहसिक पत्रकार रामचंद्र छत्रपति को भी 6 गोलियां मारी गईं. लेकिन कार्रवाई तो दूर की बात उस वक्त की सरकार ने घायल का बयान लेने की भी ज़हमत नही उठाई.
इस मामले में सीबीआई के डीएसपी सतीश डागर ने बहुत दिलेरी दिखाई. उन्होंने पीड़ित साध्वियों को मानसिक रूप से तैयार किया. अगर वो सहायता न करते तो शायद आज राम रहीम सलाखों के पीछे ना होता. दरअसल पैसे और धर्म की ताकत के आगे शासन-प्रशासन इस कदर दंडवत है कि आम आदमी की कोई औकात ही नहीं रह गयी है. अंधभक्तों की गूंगी-बहरी सेना के आगे बरसों तक जुर्म के आगे सिर ना झुकाना जिस साहस और हिम्मत की मिसाल दे रहा है उसने लोकतंत्र में निहित आम आदमी की सही जगह को एक बार फिर से सबके सामने ला दिया है और लोग मजबूर हो गये हैं, उन वय्क्तियों को सलाम करने के लिये जिन्होने अपनी जान की बाजी लगा कर और अपने प्रिय लोगों की जान गंवाने के बाद भी भारतीय न्यायपालिका में अपना विश्वास कायम रखा और लड़ते रहे तब तक जब तक उन्हे न्याय नहीं मिल गया.
कहते भी हैं ‘ज़ुल्म की टहनी कभी फलती नही और कागज़ की नाँव कभी चलती नही’
ये साबित हो गया कि कानून ही लोकतंत्र में सबसे ऊपर है. देर से ही सही पर जीत सच्चाई और न्याय की हुई है.