हम देश के लिए डिजिटल इंडिया का सपना देख रहे हैं और हमारे बच्चे भीख मांग कर कफन जुटा रहे हैं
भारत जैसे देश में डिजिटल इंडिया का सपना देखना या उस सपने को हकीकत में बदलते हुए देखना गलत नहीं है. मोदी सरकार डिजिटल इंडिया का सपना देख भी रही है, और उस दिशा में काम भी कर रही है. लेकिन इन सपनों के बीच कुछ ऐसी सच्चाईयों का सामना हमसे होता है जो हमें अंदर तक झकझोर-सा देता है.
जरा सोचिए कोई व्यक्ति अपने कंधों पर अपनी बीवी की लाश को मिलो दूर लेकर चलता है क्योंकि उसके पास सुविधाएं नहीं हैं, प्रशासन तो है पर कागजों में. और जब कैमरे का फ्लैश उस पर चमकता है तब जाकर सरकार और प्रशासन की आंखे चौंधयाती है. ऐसी एक घटना नहीं है, पिछले कुछ सालों में कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं.
अभी हाल ही में यूपी के शाहजहांपुर की एक घटना सामने आई है जिसमें तीन-चार बच्चे अपनी माँ के कफन के लिए भीख मांग रहे हैं. अक्सर आपको छोटे-छोटे बच्चे भीख मांगते हुए मिल ही जाते होंगे ये सिर्फ दिल्ली की कहानी नहीं है, भारत के हर शहर की यही कहानी है..! यहाँ चार छोटे-छोटे बच्चों को भीख मांगकर अपनी मां के लिए कफन का इंतजाम करना पड़ा है. बच्चों ने भीख मांगकर किसी तरह अपनी मां का अंतिम संस्कार किया. बच्चों और गांववालों ने कई बार प्रशासन से मदद मांगी लेकिन किसी अधिकारी ने उनकी मदद नहीं की. थक हारकर बच्चों ने भीख मांगकर अपनी मां का अंतिम संस्कार किया.
चलिए प्रशासन तो अपनी सरकार का एक हिस्सा है पर ये भी एक सच है कि सरकार के किसी भी हिस्से से हम अब ज्यादा उम्मीद नहीं रखते. लेकिन वे बच्चे जिस समाज में रह रहे थे वह समाज क्या कर रहा था..? दरअसल हम इतने स्वार्थी और क्रूर बनते जा रहे हैं कि हमें कुछ दिखाई ही नहीं देता या फिर देख कर अनजान बनने वाला हुनर हमने अपना लिया है. सभी अपने काम में लगे हैं, कोई अपनी बीवी को पार्लर छोड़ने जा रहा है तो कोई अपनी पड़ोसन के साथ खरीदारी करने जा रहा है, किसी को बेटे को प्ले स्कूल ले जाना है तो कोई 320 नम्बर की बस के पीछे भाग रहा है.
दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र की आखिर क्या मजबूरी है कि इटावा के उदयवीर सिंह नाम के एक मजदूर को अपने पंन्द्रह साल के बेटे पुष्पेंद्र का शव अपने कंधे पर लादकर घंटों पैदल चलना पड़ता है..? क्या वजह है कि ओडिशा के दाना मांझी को अपनी पत्नी का शव 12 किलोमीटर अपने कंधे पर लादकर चलना पड़ता है..? यहाँ सवाल सिर्फ एंबुलेंस मुहैया कराने का नहीं है, सवाल देश की उस बड़ी आबादी का है जो ऐसे ही हालातों में जी रही है.
जिस दौर में हम जी रहे हैं वहाँ डिजिटल इंडिया की बात करना स्वाभाविक है इसमें कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन यह भी तो देखने वाली बात है कि हमारे बुनियादी हालात कैसे हैं, सरकार के द्वारा इतनी सारी योजनाओं के बावजूद लोगों को असुविधाओं का सामना क्यों करना पड़ रहा है…? अगर इन सब घटनाओं के लिए कोई प्रशासनिक अधिकारी जिम्मेवार है तो उसपर ठीकरा फोड़ने में सरकारों को कोई गुरेज नहींं होता फिर मंत्रियों और पूंजीपतियों पर यह तरीका क्यों नहीं लगाया जाता.
रेड लाइट पर सड़क किनारे भीख मांगते बच्चे अमूमन आपको हर शहर में दिख ही जाएंगे, भारत में ये कोई नई बात नहीं है अगर आप नये हैं तो भी. गोरे लोगों के लिए यह फोटोग्राफी का विषय होता है. लेकिन वे लोग भी जब दिल्ली से लेकर कोलकाता और आगरा से उदयपुर तक यही देखते हैं तो उनकी धारणा बदल जाती है. देश के लिए भी और उन बच्चों के लिए भी. खैर ये तो अपनी पेट के लिए भीख मांगते हैं लेकिन उन चार बच्चों के बारे में जरा सोचिए जो अपनी माँ के कफन के लिए भीख मांग रहे थे. इन बच्चों के लिए सबसे बड़ी त्रासदी तो ये है कि हर भीख देने वाला इसे भीख मांगने का नया हुनर समझ उन्हें गरियाते हुए आगे बढ़ जाता होगा.
विडंबना देखिए कि हम इजरायल, पीएम मोदी और नेतन्याहू के गीत गा रहे हैं और इसे एक बड़ी आबादी फेसबुक, ट्वीटर और व्हाट्सअप पर पसंद भी कर रही है. सबकुछ कितना अच्छा कितना महान-सा लग रहा है..? कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हम भी इन महानुभावों के साथ महान बनते जा रहे हैं..! पर जैसे ही इन मासूमों की तस्वीर आँखों के सामने आती है अपनी ये महानता खटकने लगती है, ये महानता किसी कांटे से भी ज्यादा चुभती है अगर सिर्फ चुभती तो बर्दाश्त कर लेता पर ये महानता जितना चुभती है उससे ज्यादा धिक्कारती है..!