तक़रीबन एक महीने पहले सभी समाचार पत्रों में यह खबर थी कि यह कैबिनेट वीरभद्र सरकार की आखिरी कैबिनेट होगी, लेकिन उनका यह अनुमान गलत निकला वह आखिरी नहीं थी. उसके बाद कैबिनेट की बैठकें होती रहीं और धड़ाधड़ निर्णय लिए जाते रहे. समाचार पत्रों ने यह लिखना भी बंद कर दिया कि यह आखिरी कैबिनेट है.
इस अफरा-तफरी में लगभग उन सभी बिलों पर निर्णय ले लिए गए जो विवादित थे मसलन विधायकों को लीज पर हाऊसिंग कॉम्प्लेक्स के लिए जमीन दिया जाना, हिमाचल हेरिटेज टूरिज्म पॉलिसी के माध्यम से रईसों को महलों के जीर्णोद्धार के लिए धन दिए जाने का फैसला.
अब इसी सिलसिले में ‘सीलिंग ऑन लैंड होल्डिंग एक्ट, 1972’ जिसमे यह तय किया गया था कि किसी के पास 150 बीघा से ज्यादा जमीन नहीं होगी. जिसके पास इससे ज्यादा जमीने थीं उसे सरकार ने सरेंडर करवाया लेकिन हिमाचल की पहचान के नाम पर सेब के बागानों और चाय के बागानों को इससे बाहर रखा गया और इसे बेचने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था.
डेरा सच्चा सौदा को ज़मीन कैसी मिली, इस पर पक्ष-विपक्ष दोनों ने साधी चुप्पी
अब इन नियमों का खुला उलंघन करते हुए ‘टी टूरिज्म’ नाम से बड़े बगान मालिकों को जमीन बेचने की छूट दी गयी है. पहले से ही एक्ट के नियमों का उल्लंघन करते हुए जमीनें खरीदने, बेचने और इमारतें बनाने का धंधा खुलेआम चल रहा था अब इसे कानूनी जामा भी पहना दिया गया है. संशोधन से पहले ही वहां डेरा सच्चा सौदा को जमीन कैसे मिल गयी, इस बारे में पक्ष और विपक्ष दोनों खामोश रहे जो जांच का विषय है. ‘टी टूरिज्म’ पर भी विपक्ष ने सरकार पर सवाल नहीं किया है.
सवाल यह है कि जब 1972 में 150 बीघा से अधिक जमीनों का सरकार ने अधिग्रहण किया और चाय बागानों को इसलिए इससे बाहर रखा कि इससे हिमाचल की पहचान बनी रहेगी तो इस समय जब वह इसे बेचना ही चाहते हैं तो सरकार इनका अधिग्रहण करने की बजाय उन्हें इसे बेचने की अनुमति कैसे दे सकती है ? और यदि दे रही है तो सिर्फ बड़े बागान मालिकों को ही क्यों ? क्या छोटे चाय बागान मालिकों ने कोई गुनाह किया है ? उनके भी घर में समस्याएं आती होंगी, जरुरत पड़ती होगी धन की!
सरकार ऐसा क्यों कर रही है इसके पीछे के कारणों के बारे में अनुमान लगाना जरा भी मुश्किल नहीं है, कि जो लोग इसे बेचना चाह रहे हैं वह सरकार के नजदीकी और प्रभावशाली लोग हैं जिनके पास 1000 बीघा से ज्यादा का बागान है.
पहले तो सन बहत्तर में अपने को सीलिंग एक्ट से बाहर रखवाकर, हिमाचल की पहचान के नाम पर कमाई करते रहे और अब जब ज्यादा मुनाफा होटल और अन्य उद्योगों में दिख रहा है तो उधर से मुनाफा बनाना चाहते हैं.
सरकार से पूछा जाना चाहिए कि अब हिमाचल की पहचान कांगड़ा की चाय की रक्षा कौन करेगा ? या पहचान और रक्षा कोई मुद्दा ही नहीं था बल्कि इसके नाम पर केवल बड़े बागान मालिकों को उस समय भी फायदा पहुँचाया गया और आज भी पहुँचाया जा रहा है.